विदर्भ से तेलन्गाना तक
एक
एक बार समुद्र लिखा था
दस मिनट तक
फिर रेत भर थकान
बस्तर, लोकतंत्र वगैरा
इस बार
असंख्य कपड़ों की दूकानों के बीच
राह बनाती
महानगर की नंगी सड़क
कपास के बियाबान में
बूँद भर बारिश की लिखत
कौड़ियों से ज़िन्दगी बुनती
अपने मटमैलेपन में अदृश्य
पांच साल की बच्ची 'देऊ'
इस बार
मेरा सफ़र बनती
बाबुल - गाँव से हैदराबाद तक
दो
जैसे रेंगना सीख रही हो
जैसे तैरना
सड़क के बिलकुल बायें
जैसे साइकिल चलाना
रेलगाड़ी के दरवाज़े टिकी
आँचल भर लकड़ी समेटे
वह अस्सी बरस तक कुछ नहीं देखती
जैसे विदर्भ भर फैला
गोबर का काला निर्वात
सफ़ेद कपास के अबूझ विस्तार में
जैसे नदियों का खो जाना
और लापता बारिश
अपनी तय सृष्टियों में मशगूल
मैं लगातार भूलता हूँ
तेलंगाना की बसाहट का स्वर
तीन
आत्रम कुसुम राव
चौपन-गुड़ा का किसान है
वह अपनी एकड़ भर ज़मीन में
कपास के बीज बोता है
जून से दिसंबर तक
वह देना चाहता है
और नहीं दे पाता
बादलों को एक निश्चित आकार
ज़मीन से आकाश
आकाश से बाज़ार
बाज़ार से देह
मैं उतारता हूँ कमीज़
पीली दीवार में
बेरंग थकान की तरह
खूंटे पर टंगी है
कुसुम राव की ढेढ़ किलो ज़िन्दगी
चार
यहाँ उसने खोले
अपनी किलक के सारे भेद
बताया हरे को हरा, नीला, पीला
बनाये अक्षरों के सैकड़ो जोड़े
और टांग दिया उन्हें
अंतरिक्ष की गलियों में
पहाड़ की सबसे ऊंची चोटी पर
उसने बनाई बारिश
तलहटी में जमा दिए सागौन के पेड़
जिससे थोड़ी दूर बसा था उसका घर
घर से आगे
माँ, बाप, भाई, बहन
जब खेत की मेंढ़ पर खड़े
अपनी फसल निहारते
वह बनती ज़मीन
और खेलती
धान के साथ
हवा का आदिम खेल
इन दिनों
एक
घर के ऐन बाहर पान की दुकान थी
वहाँ भी
यहाँ भी
वहाँ
बिना मात्राओं का नाम
पलटन
यहाँ
ऑफिस जाते - आते
मिलती नज़रें
पलटन के पान ठेले से
हैदराबाद के खोमचे तक
फैलती स्मृति
इन दिनों
पता चला
दोनों लौट गए
मृत्यु में
दो
इन दिनों
दस्तखत किये
सुना
कहा
देखा
पहले भोपाल से गाडरवारा
फिर भोपाल से शाजापुर
कैमरे में कैद की
गोपी की फसल
तीरथ की कुम्हारी
खैरी और रयलावत की गलियां
इस वक़्त शायद
europe की बाज़ारों में
बीत रही होंगी
ये तमाम जिंदगियां
किसी विदेशी चैनल पर
इश्तहार की तरह
छप गया होगा मेरा सफ़र
तीन
इतना मैं पहले भी जानता था
कि पैसे बहुत कम हैं
गरीब की संज्ञा नहीं दी थी
हिम्मत नहीं थी
इन दिनों मैंने देखा
इनकी मदद को खुलती अजीब दिशायें
विदेश से देश तक
पगडंडियों को सड़क बनाने के कारनामे
किसानो को खेती सिखाने की हैरत में
मैंने गुज़ारे पिछले तीन साल
इस बीच, शायद नहीं देख पाया
रंगीन तकियों की ढेर से
चादर तान कर
अपने घर में
कहानियों को सुलाती
अपनी बच्ची का बड़ा होना
Wednesday, December 16, 2009
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