Wednesday, December 01, 2010

Practice

I had had this premonition quite often. Of waking up one day and forgetting to write. This is just one of those days. I made a count - 3 edited short stories, 1 rough, 12 incomplete and 6 story ideas.

I tried to return to them and remembered.

 Strange Pilgrims.

Maybe I should also start a novel.

It has been irrelevant whether I complete the starts.

Tuesday, February 02, 2010

लिखने की इच्छा इतनी तीव्र हो रही है कि जी करता है अभी इसी वक़्त नौकरी छोड़ कर लिखने लग जाऊं।
पर फिलहाल ऐसी संभावनाएं दीगर हैं।
बाकी कुछ भी नहीं है।

विश्वास भी नहीं

Wednesday, December 16, 2009

विदर्भ से तेलन्गाना तक

एक

एक बार समुद्र लिखा था
दस मिनट तक
फिर रेत भर थकान
बस्तर, लोकतंत्र वगैरा

इस बार
असंख्य कपड़ों की दूकानों के बीच
राह बनाती
महानगर की नंगी सड़क

कपास के बियाबान में
बूँद भर बारिश की लिखत

कौड़ियों से ज़िन्दगी बुनती
अपने मटमैलेपन में अदृश्य
पांच साल की बच्ची 'देऊ'

इस बार
मेरा सफ़र बनती
बाबुल - गाँव से हैदराबाद तक

दो

जैसे रेंगना सीख रही हो
जैसे तैरना
सड़क के बिलकुल बायें
जैसे साइकिल चलाना

रेलगाड़ी के दरवाज़े टिकी
आँचल भर लकड़ी समेटे
वह अस्सी बरस तक कुछ नहीं देखती
जैसे विदर्भ भर फैला
गोबर का काला निर्वात

सफ़ेद कपास के अबूझ विस्तार में
जैसे नदियों का खो जाना
और लापता बारिश

अपनी तय सृष्टियों में मशगूल
मैं लगातार भूलता हूँ
तेलंगाना की बसाहट का स्वर

तीन

आत्रम कुसुम राव
चौपन-गुड़ा का किसान है
वह अपनी एकड़ भर ज़मीन में
कपास के बीज बोता है

जून से दिसंबर तक
वह देना चाहता है
और नहीं दे पाता
बादलों को एक निश्चित आकार

ज़मीन से आकाश
आकाश से बाज़ार
बाज़ार से देह
मैं उतारता हूँ कमीज़

पीली दीवार में
बेरंग थकान की तरह
खूंटे पर टंगी है
कुसुम राव की ढेढ़ किलो ज़िन्दगी


चार

यहाँ उसने खोले
अपनी किलक के सारे भेद
बताया हरे को हरा, नीला, पीला
बनाये अक्षरों के सैकड़ो जोड़े
और टांग दिया उन्हें
अंतरिक्ष की गलियों में

पहाड़ की सबसे ऊंची चोटी पर
उसने बनाई बारिश
तलहटी में जमा दिए सागौन के पेड़
जिससे थोड़ी दूर बसा था उसका घर

घर से आगे
माँ, बाप, भाई, बहन
जब खेत की मेंढ़ पर खड़े
अपनी फसल निहारते

वह बनती ज़मीन
और खेलती
धान के साथ
हवा का आदिम खेल


इन दिनों

एक

घर के ऐन बाहर पान की दुकान थी
वहाँ भी
यहाँ भी

वहाँ
बिना मात्राओं का नाम
पलटन

यहाँ
ऑफिस जाते - आते
मिलती नज़रें

पलटन के पान ठेले से
हैदराबाद के खोमचे तक
फैलती स्मृति

इन दिनों
पता चला
दोनों लौट गए
मृत्यु में

दो

इन दिनों
दस्तखत किये
सुना
कहा
देखा

पहले भोपाल से गाडरवारा
फिर भोपाल से शाजापुर

कैमरे में कैद की
गोपी की फसल
तीरथ की कुम्हारी
खैरी और रयलावत की गलियां

इस वक़्त शायद
europe की बाज़ारों में
बीत रही होंगी
ये तमाम जिंदगियां

किसी विदेशी चैनल पर
इश्तहार की तरह
छप गया होगा मेरा सफ़र

तीन

इतना मैं पहले भी जानता था
कि पैसे बहुत कम हैं
गरीब की संज्ञा नहीं दी थी
हिम्मत नहीं थी

इन दिनों मैंने देखा
इनकी मदद को खुलती अजीब दिशायें
विदेश से देश तक
पगडंडियों को सड़क बनाने के कारनामे
किसानो को खेती सिखाने की हैरत में
मैंने गुज़ारे पिछले तीन साल

इस बीच, शायद नहीं देख पाया
रंगीन तकियों की ढेर से
चादर तान कर
अपने घर में
कहानियों को सुलाती
अपनी बच्ची का बड़ा होना

Saturday, May 02, 2009


महजिद के सामने
बन्दूक दुकान के पेवठा ऊपर
माड़ी खजुआत मरबो राज
जम्मो रस्ता यहिंच्च ले जाथे

Monday, April 27, 2009

Biceps, Nirala and etc




I met this farmer in January. He touched my feet, as did many others, believing us to be people who help them.
We (I implicitly include myself with my organization) recently claim to have helped them by establishing an 'Ecocenter' at their village.
A demonstrative project, so to say, which emphasizes on optimum utilization of cow dung & urine for sustainable agriculture.
Thats another say whether I believed in this.


But as I looked into his eyes
I could see

Pains and pleasure
are not helped

He knew it, as his breaths


Worked on my leisure to remember him here

Thursday, February 19, 2009

और उसके बच्चे
माँ माँ कहते बिखर गए आकाश में

Two

A little of yellow
As it melted from the sun
And a few brush-sticks

She announced a dawn
To my still sleeping street

For thousand years now
I can imagine
Her sounds

Smudging me
In yellow streaks
Of wakefulness

Old women
With brush sticks
Never cross my street anymore

I resign
To nauseous machinery
Of rainless sleeps

I am not in a run

In between
When she asked for more
I looked out
And there they were

Thousand nights
With a single star

The writing was clear
On the wall

Black ants overtook the red

Wednesday, February 18, 2009

Drunk

Antagonizing is simple, at least in thoughts. As is listening before hearing.
Comrade,
when do we learn from the river
which flows
all the time

Less than a month

Its generally this time around a year when my stars shine. Alternatively, I assume them to shine. And its an assumption with years of conviction. Its the time when I approach Holi. Not the corollary. I approach Holi with such a premeditated redundancy that its almost like enacting a dejavu.
I see the sounds we smear ourselves with over those unbridled nights. Days are more like walking as shadows through a world which immediately seems so intimate and distant. Afternoons happen, evenings lean on it, I remember I wrote years back on such a day.

Its just not the imagery I indulge myself in that called me to write. In fact, I can escape myself for now by saying that this writing happened as a part of my approach. But apart from the euphoria, there's also something cathartic I create for myself around Holi.

I keep telling myself - its almost a re-incarnation. I believe that most of my problems reach solutions around this time. Even if I have a bad stomach ache which reminds me of malignant tumors or an imminent economic crisis, I deify Holi to erase any forebodings.

Not that all along the approach, I never get depressed. I do. But somewhere behind, I sense an unquestionable security. Its just a month away, I would say to keep myself happy.

And does this work? Are my fears allayed?

That would be the last thing I would bother about.
Comrade as we said then and now, they happen and I see them happening.